महाराष्ट्र में विभिन्न पक्ष-पार्टी के लोग और अधिकारियों लगभग 25 हजार करोड़ रुपयों का घोटाला

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🔹सहकारिता क्षेत्र बरबाद कर के निजिकरण को बढ़ावा देने की कोशिश हुई हैं। इस घोटाले की उच्च स्तरीय जाँच करे- अण्णाजी हजारे

✒️अंबादास पवार(विशेष प्रतिनिधी)मो:-95619 05573

बुलढाणा(दि.25जानेवारी):- महाराष्ट्र राज्य का निर्माण 1960 में हुआ। महाराष्ट्र में 1980 तक 60 सहकारी चीनी कारखाने थे। और वह सब पूरी क्षमता से चल रहें थे। इस माध्यम से महाराष्ट्र में सहकारिता क्षेत्र इतना मजबूत हो गया की, वह ग्रामीण अर्थ व्यवस्था की नब्ज बन गयी। आगे चल कर यह सहकारिता क्षेत्र देश के लिए एक प्रकाशस्तंभ बन गया।

बाद में सत्तारुढ़ पार्टी ने और राजनीतिक लोगों ने व्यावहारिक दृष्टिकोण को देखे बिना कई चीनी कारखानों को स्विकृती दे दी। ऐसा करने में वह चाहते थे की, चीनी कारखानों के निर्माण से उन्हे बड़ी राशि मिलेगी और इन कारखानों का उपयोग निजि राजनिती के लिए होगा। 2015-16 में महाराष्ट्र के चीनी आयुक्त ने अपनी रिपोर्ट में लिखा हैं की, सम्पूर्ण महाराष्ट्र की चीनी निर्माण करने की अधिकतम क्षमता 7 करोड़ मेट्रिक टन से ज्यादा नहीं हो सकती। फिर भी सरकारने 9.30 करोड़ मेट्रिक टन से ज्यादा क्षमता के चीनी कारखानों को स्विकृति दी हैं। इस से यह स्पष्ट होता हैं की, गन्ने की किल्लत से कारखानें बंद हो जाएंगे, यह जानते हुए भी नए कारखानों को स्विकृति देने में राजनीतिक लोग और अधिकारीयों को कितनी दिलचस्पी थी। इस कारण 2006 तक सहकारी चीनी कारखानों की संख्या 185 हो गई। इस प्रकार उपलब्ध गन्ने की तुलना में कारखानों की संख्या ज्यादा होने के कारण यह क्षेत्र बिमार होने लगा। इसमें से 116 चीनी कारखाने घाटे में चले गए। जून 2006 तक उनमें से 74 चीनी कारखाने नकारात्मक निवल मूल्य में पंजीकरण हो गए। 1987 से 2006 तक 31 चीनी कारखानों को परिसमापन में लाया गया। कई सारे कारखानों ने अनुत्पादक और निष्क्रिय निवेश कर दिया। गन्ने के उत्पादन पर ध्यान नहीं दिया। कारखानों के आधुनिकिकरण पर ध्यान नहीं दिया और कारोबार में कुप्रबंधन हो गया। तत्कालीन सरकार और चीनी आयुक्त आवश्यकता से अधिक चीनी कारखानों को स्विकृति तथा कारोबार में कुप्रबंधन के लिए जिम्मेदार लोगों के विरोध में कार्रवाई करने में असफल रहें।

महाराष्ट्र के चीनी कारखानें बिमार होने की जांच और सिफारिशें करने के लिए 1980 के बाद राज्य स्तर पर चार अलग अलग समितियां गठित की गई। इसमें गुलाबराव पाटील समिति (1983), शिवाजीराव पाटील समिति (1990), प्रेमकुमार समिति (1993) और माधवराव गोडबोले समिति (1999) का गठन किया गया था। लेकिन इन समितियों की ओर से कोई भी सिफारीश नहीं की गई। इस बारें में केंद्र सरकार द्वारा भी तुतेजा समिति, रंजना कुमार समिति, मित्र समिती ऐसी कुछ उच्चाधिकार समितियां गठित की गई थी। इन समितियों की सिफारिशें केंद्र सरकार द्वारा स्वीकार की गई, लेकीन महाराष्ट्र सरकारने उन पर अंमल नहीं किया। 2006 में रंजना कुमार समिति की सिफारिशों के कारण बिमार बन गए चीनी कारखानों का पुनः प्रवर्तन करने के लिए 3000 करोड़ रुपयों का बज़ट पारित किया गया था। लेकिन, कारखानों का पुनः प्रवर्तन करने के लिए राज्य सरकारने एक भी प्रस्ताव केंद्र के पास नहीं भेजा। इसका एकही कारण कुप्रबंधन ही हैं। अगर राज्य सरकार ऐसा प्रस्ताव भेजती तो कारखाने लिक्विडेशन में नहीं जाते। यह अनजाने में नहीं हुआ था, तो जान बुझकर किया गया था। क्यों की, महाराष्ट्र सरकार में मौजुद लोग, वित्तीय संस्था के लोग और कारखानों के निदेशक मंडल यह सब आपस में मिले हुए थें। अपने स्वार्थ के लिए इन लोगों नें महाराष्ट्र का सहकारिता क्षेत्र को ध्वस्त कर दिया। जो सहकारी चीनी कारखानें निजि संस्थाओनें बहुत ही कम रेट पर खरीद लिए। इस लेनदेन की अगर जाँच हुई तो यह साबित होगा की, अधिकांश चीनी कारखानें परोक्ष रूप से साजिश रचाकर लूटे गये। इतनाही नहीं, जो चीनी कारखाने बहुत ही कम रेट पर खरीदे गये। उन्हे सरकार द्वारा नियंत्रित वित्तिय संस्थाओं ने खरीद मूल्य से अधिक राशि कर्ज के रूप में दे दी। सबसे आश्चर्य की बात हैं की, बिक्री किए गए निजि राजनीतिक लोगों ने खरीदने के बाद पूर्ण क्षमतासे चलने लगे और जल्दही मुनाफे में आ गए।

बिमार हुए सहकारी चीनी कारखानों को पुनर्जीवित करने के लिए गठित की गयी समितियों द्वारा की गई सिफारिशें मान कर केंद्र सरकार बजेट में प्रावधान कर के कोशिश करती रहीं। लेकिन फिर भी 47 सहकारी चीनी कारखाने राजनीतिक निजि लोगों को बहुत ही कम रेट में बिक्री किए गए। गरीब किसानों ने शेअर्स के रूप में जमा किए गए निवेश से और मुफ्त में दिए भूमि पर यह सहकारी चीनी फैक्टरियां खड़ी हुई थी। लेकिन कारखानों के निदेशक मंडल ने उन्हे कर्ज के चपेट में ढकेल दिया। इसलिए हमारा कहना हैं की, महाराष्ट्र में सहकारी चीनी कारखाने बिमार नहीं हुए, जान बुझकर बिमार किए गए। और बहुत ही कम रेट में खरीदें गए। इस बिक्री में जो अवैधानिकि दिख रहीं हैं, उसे देखकर तो इसे बिक्री की व्यावहारिक दृष्टी से लेनदेन नहीं कह सकते। इस में साफ तौर पर कदाचार, पधोखाधड़ी, विश्वासघात और बड़ा घोटाला कहना जादा सही रहेगा। इस लेनदेन में शामिल सभी लोगो नें मिलजुलकर सहकारिता क्षेत्र को विलुप्त कर के निजिकरण करने की कोशिश की हैं। इसमें महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक ने 32 सहकारी चीनी कारखानों की बिक्री की हैं। एक प्रकार से इन्होने सार्वजनिक संपत्ती की लूट कि हैं।

इन चीनी कारखानों के हजारो सदस्य जो किसान हैं, उन्होने काहीसहकारी चीनी फैक्टरी को खड़ा करने के लिए शेअर्स के रूप में निवेश जमा कर दिया। उसके बाद सरकारने फैक्टरीयों को प्रति मेट्रिक टन 10 रुपयों की वापसी राशि तथा 10 रुपयों की प्रति मेट्रिक टन गैरवापसी राशि कटौती करने के लिए अनुमती दे दी। किसानों ने फैक्टरी को सालों से लाखों मेट्रिक टन गन्ना देने के कारण इस माध्यमसे किसानों की लाखों रुपयों की राशि जमा हो गई। जो दिनबदिन बढ़ती गई। यह राशि शेअर्स की राशि से दस से बीस प्रतिशत ज्यादा हो सकती हैं। इस राशि से किसी भी सहकारी चीनी फैक्टरी ने किसानों को ना लाभांश दिया हैं, ना शेअर्स की राशी लौटाई हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात हैं की, जब सहकारी चीनी फैक्टरियों की बिक्री की गई तब सदस्य किसान तथा फैक्टरी कर्मियों जो किसान है उनके बारें में बिलकूल नहीं सोचा गया। बिक्री करते समय जो फैक्टरी के मालिक हैं उन किसानों को पुछा तक नहीं। इस प्रकार किसानों के करोड़ रुपयों की संपत्ती की लूट की गई।

महाराष्ट्र में पुरानी सहकारी चीनी फैक्टरियां गन्ने की कमी के कारण चलाना मुश्किल हो रहा था। फिर भी नई चीनी फैक्टरियों को स्विकृती दी गई। इस कारण सहकारी चीनी फैक्टरीयां ज्यादा मुश्किल में आ गई। इस के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री, खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री तथा संबंधित विभाग के अधिकारी जिम्मेदार हैं। उन्होने जरुरत से ज्यादा चीनी फैक्टरियों को स्विकृती दे दी।

महाराष्ट्र में सहकारी चीनी फैक्टरियों के बारें में जो घोटाले हुए हैं, इसकी विभिन्न एजन्सीयों द्वारा जाँच की गई हैं। इस जाँच से सत्ता का दुरुपयोग कैसे हुआ यह स्पष्ट हुआ हैं। लेकिन इस बड़े घोटाले में सभी राजनीतिक पार्टी के लोग शामिल होने के कारण जाँच रिपोर्ट अनुसार सख्त कार्रवाई नहीं हो रही हैं। दुसरी बात यह हैं की, केंद्र सरकार के पास भी इस घोटाले की जाँच रिपोर्ट हैं। लेकिन आज तक किसी सरकारने उस जाँच रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई नहीं की। राज्य सरकार द्वारा 73, 83, 88 की जाँच हो कर जिन राजनीतिक लोगों ने चीनी कारखानों की लूट की हैं, उन पर जिम्मेदारी तय की हैं।

यह केवल रुपयों का दुरुपयोग करने तक सीमित नहीं हैं। यह अवैध सावकारी तथा धोखाधड़ी का अपराध भी होता हैं। 1988 के भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम अनुसार यह संगठित अपराध और अवैध सावकारी का अपराध होता हैं।

हमने 2009 से महाराष्ट्र के इस सहकारी चीनी फैक्टरीयों के घोटाले के बारें में किसानों को न्याय दिलाने हेतु आंदोलन किए हैं। 2009 मे आलंदी (पुणे) में आंदोलन किया था। उसके बाद 2013 में मुंबई के आज़ाद मैदान पर आंदोलन किया था। फिर भी सिर्फ आश्वासन मिले। गरीब किसानों को न्याय नहीं मिला। इसलिए हमने मुंबई हायकोर्ट में जनहित याचिका दायर की। 1 फरवरी 2017 के दिन माता रमाबाई आंबेडकर मार्ग पुलिस थाना, मुंबई में 49 शुगर फॅक्टरी के भ्रष्टाचार के पुरे सबूत के साथ केस दर्ज किया। लेकिन जाँच के लिए सरकारने जिन अधिकारीयों को नियुक्त किया वह राजनीतिक लोगों से मिलेजुले थे। उन्होने जाँच करते समय ना याचिकाकर्ता से कुछ पुछा, ना किसानों से कुछ पुछा। दो साल बाद एक जगह पर बैठकर क्लोजर रिपोर्ट बना दी। इस बात का बड़ा आश्चर्य लगता हैं। इस बारें में हमारा कहना हैं की, जाँच अधिकारीने यह क्लोजर रिपोर्ट राजनीतिक लोगों के दबाव में आकर दिया हैं। यह रिपोर्ट एकतरफा और गुमराह करनेवाला हैं। इसलिए हमने न्यायालय में इस क्लोजर रिपोर्ट को विरोध करने के लिए एक आवेदन दायर किया हैं। जिसपर अब तक निर्णय नहीं मिला हैं।

अब सवाल पैदा होता हैं की, लगभग 25 हजार करोड़ रुपयों के इतने बड़े घोटाले के बारे में राज्य सरकार अगर कार्रवाई नहीं कर रहीं हैं, तो फिर कार्रवाई कौन करेगा। केंद्र सरकारने पारदर्शिता और किसानों के हित के लिए पहली बार केंद्रीय मंत्रालय में सहकार विभाग का निर्माण किया हैं। इसलिए केंद्र सरकार के सहकार विभाग द्वारा महाराष्ट्र में हुए सहकारी चीनी फैक्टरियों के घोटाले की उच्चाधिकार समिति द्वारा अगर जाँच और कार्रवाई हुई तो वह किसानों के हित में होगा।

केंद्र सरकार की ओर से प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा महाराष्ट्र के जरंडेश्वर सहकारी चीनी कारखाने पर कार्रवाई कर के 65 करोड़ रुपयों की संपत्ति जब्त करने की खबरे आयी हैं। गैरकानूनी तरिके से कर्ज देना और गैरकानूनी तरिके से चीनी फैक्टरी की बिक्री के कारणही यह कार्रवाई हुई हैं। इस बारें मैने उपरोक्त दिए हुए विभिन्न जाँच रिपोर्ट खास कर के नाबार्ड तथा कैग की रिपोर्ट केंद्र सरकार के पास हैं। इन रिपोर्टस् के आधार पर केंद्र सरकार द्वारा महाराष्ट्र में सहकारी चीनी कारखानों में हुए घोटाले की सही जाँच करनी चाहिए। मुझे यकीन हैं की, अगर किसी भी राजनीतिक दबाव के बिना तथा निष्पक्ष जाँच हुई तो यह स्पष्ट होगा की, सत्ता में बैठे बड़े नेता तथा अधिकारी सहकारी चीनी कारखाने और उनकी संपत्ती लुटने के लिए, अपने नीजि स्वार्थ के लिए कानून को कैसे तोड़ देते हैं! और इस प्रकार से सहकारिता क्षेत्र बरबाद कर के नीजिकरण को बढ़ावा दिया जा रहा हैं, यह भी सामने आएगा।

इसलिए आपसे बिनती हैं की, इस घोटाले की सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की समिति गठित कर के निष्पक्ष जाँच हो।