.. और इस बार वे सेना को निपटाने आये!!

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मौजूदा शासक समूह की एक अनोखी निर्विवाद खासियत है और वह यह कि इनके कर्मों से देश को नुकसान पहुंचाने की जितनी भी खराब से खराब आशंका की जाए, वे उससे भी 50 जूते आगे नजर आते हैं। नोटबंदी से लेकर सब कुछ बेच डालने तक। शिक्षा – स्वास्थ्य – रोजगार सब तबाह कर देने के बाद भी उनके विरोधी और चिंतित शुभचिंतक डोकलाम से लेकर अमरीकी चौगुट – क्वाड – तक के आत्मघाती कारनामों के बावजूद यह मानते रहे कि अन्ततः भाई लोग हैं तो “राष्ट्रवादी”, इसलिए कम-से-कम सुरक्षा – सीमा और – सेना को मजबूत बनाने में तो कोई लेतलाली नहीं करेंगे। उनके साथ तो धंधा नहीं जोड़ेंगे। मगर इस बार भी हुक्मरान सबको चौंकाते हुए उनकी आशंकाओं से खूब आगे, समूचे भारतीय अवाम की आश्वस्ति की प्रतीक भारत की सेना की नींवों में नमक और अम्ल डालते हुए – उसकी बनावट और पहचान को ही ध्वस्त करते नजर आये। अग्निवीर के नाम पर की जाने वाली कथित भर्ती की अग्निपथ योजना इसी तरह का कारनामा है।

कल इसकी घोषणा होने के बाद से ही अग्निवीर प्रकोप से होने वाले विनाशों के बारे में काफी चर्चा हो चुकी है। सिर्फ विपक्षी दल, नागरिक प्रशासन से जुड़े रहे आला अधिकारी ही नहीं, भारतीय सेना के अनेक सेवानिवृत्त अफसर भी इस अत्यंत आपत्तिजनक और राष्ट्रविरोधी योजना की भर्त्सना कर चुके हैं। यकीनन इससे भारतीय सुरक्षा व्यवस्था कमजोर होगी, सेना की पहचान और एकजुटता प्रभावित होगी, बड़ी संख्या में रोजगार देने वाली आर्मी हर साल 35-40 हजार बेरोजगार पैदा करने वाला संस्थान बन जाएगी, जीवन को दांव पर लगाने वाले सैनिकों को छोटे-बड़े कारखानों के अस्थायी और ठेका मजदूरों से भी ख़राब श्रेणी में धकेल दिया जायेगा, इससे उनका और इस तरह भारत की सेना सुरक्षा बलों के मनोबल और व्यावसायिकता पर क्या प्रभाव पडेगा, इसे समझने के लिए सैन्यविज्ञान, प्रबंधन विज्ञान या मनोविज्ञान की पढ़ाई जरूरी नहीं है।

इन सब पहले से कही बातों को दोहराने की बजाय यहां इसके और भी ज्यादा गंभीर और खतरनाक तीन आयामों पर नजर डालना ठीक होगा।

पहला यह कि अग्निपथ के बाद केंद्र सरकार फ़ौज की भर्ती हमेशा के लिए बंद करेगी। ध्यान दें कि इस कथित राष्ट्रवादी सरकार ने पिछले दो वर्षों से नियमित सैन्य भर्ती नहीं करवाई है। राजनाथ सिंह द्वारा बतायी गयी “वेतन और पेंशन खर्च बचाने” वाली इस मितव्ययिता की “आर्थिक चतुराई” के चलते पहले से ही हालत यह हो गयी है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना भारत की सेना में 2021 तक 104,653 कर्मियों की कमी हो चुकी थी। अब यह पद कभी नहीं भरे जाएंगे – आने वाले वर्षों में इन पदों को भरने की बजाए उनकी जगह अग्निवीर लेंगे।

यह “प्रयोग” उस देश में होना है, जिसकी 7 पड़ोसी देशों — बंगलादेश (4,096 किलोमीटर), भूटान ( 578 किलोमीटर), चीन (3,488 किमी), म्यांमार (1,643 किमी), नेपाल (1,752 किमी), पाकिस्तान 3,310 किमी) और श्रीलंका के साथ भी थोड़ी-सी ; इस तरह कुल जमीनी सीमा 14868 किलोमीटर की है। इसके अलावा 7 देशों के साथ 7,000 किलोमीटर की समुद्री सीमा अलग से है। कुल मिलाकर यह जोड़ 21868 किलोमीटर होता है। क्या इतनी विराट सीमा की चौकसी और हिफाजत अस्थायी, अर्धकुशल, ठेके के मजदूर अग्निवीरों से कराई जा सकती है? वह भी तब, जब मोदी सरकार की अदूरदर्शी, अव्यावहारिक और अमरीकापरस्त विदेश नीति के चलते अब एक भी पड़ोसी देश ऐसा नहीं है, जिसके साथ असंदिग्ध विश्वास और अटूट दोस्ती के संबंध बचे हों।

दूसरा सवाल है सेना के तीनो अंगों के रूप की भारतीय बुनावट। इसमें सभी क्षेत्रों का कोटा होता है। इसी के तहत उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम और मध्य के युवाओं का समावेश किया जाता है। भारत एक राष्ट्र जिनके समावेश से बना है, राष्ट्र की सेना उन सबको समाहित करके ही भारत की सेना बनती है। भाजपा ने कभी भारत के फ़ेडरल – संघीय – ढाँचे को आदर नहीं दिया। अग्निपथ की योजना सेना के संघीय और अखिल भारतीय स्वरुप का निषेध करती है। इसके साथ जिस तरह के खतरे छुपे हैं, इन्हे समझने के लिए मनु की किताब और गोलवलकर के “बंच ऑफ़ थॉट” पर नजर डालकर समंझा जा सकता है, इसके सामाजिक असर क्या होंगे यह समझा जा सकता है।

तीसरे, यह दावा बकवास है कि चार साल बाद हर साल हजारों की संख्या में बेरोजगारी की मंडी में उतरने वाले ये अर्ध-प्रशिक्षित अग्निवीर सरकारी, सार्वजनिक संस्थानों में नियुक्त किये जाएंगे। सरकारी भर्ती बची नहीं है और सार्वजनिक संस्थान बेचे जा रहे हैं। अलबत्ता यह कयास ठीक हैं कि इन्हें अडानी और अम्बानी की सेवा के काम में लगाया जाएगा। इनमे से अनेक को साम्प्रदायिक हमलावर गिरोह के सदस्य के रूप में इस्तेमाल किया जाएगा, निजी सेनाओं में लगाया जाएगा। *मगर असली ख़तरा इससे भी आगे का है और वह यह है कि इनमे से अनेक के दुनिया में हमलावर और लुटेरे देशों के भाड़े सैनिकों के रूप में भर्ती होने के दरवाजे खोल दिए जाएंगे। यह भारत का ही निषेध है।*

गुजरी तीन शताब्दियों का ही इतिहास देख लें, तो मर्जी या गैर-मर्जी भारतीयों की एक बड़ी संख्या व्यापार धंधों के लिए या गिरमिटिया मजदूर बन अफ्रीका और एशिया के अन्य देशों तथा कैरेबियन देशों में गयी। पिछली सदी में बड़ी तादाद में डॉक्टर्स और अन्य व्यावसयिक प्रशिक्षण प्राप्त भारतीय, कुशल कामगार यूरोप और अमरीकी महाद्वीप गए। ज्यादातर मेहनत मजदूरी और कुछ व्यापार करने खाड़ी के देशों में गए। हाल के दशकों में लाखों भारतीय युवाओं ने दुनिया भर में महाकाय कंपनियों के साइबर साम्राज्य को खड़ा किया। मगर कभी भी, कोई भी किसी दूसरे देश या गिरोह के लिए लड़ने वाला भाड़े का सैनिक बनकर नहीं गया। आजाद भारत की समझदारी खुद को युद्धक राष्ट्र बनाने की कभी नहीं रही — हमारी सेना भी हिफाजत और सुरक्षा की मजबूत दीवार रही। इसलिए भारत में कभी समाज का सैनिकीकरण करने की वह कोशिश नहीं की गयी, जो जंग खोर देश करते रहे हैं।

अग्निपथ की योजना के माध्यम से मोदी सरकार ने जनता के धन से प्रशिक्षित, लेकिन बाद में बेरोजगार बनाये गए सैनिकों की दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा भाड़े पर भर्ती के दरवाजे भी खोल दिए हैं।

ठीक यही कारण है कि आज समूचे भारत को उन नौजवानों के साथ खड़ा होना चाहिए, जो सडकों पर आकर अपने गुस्से और छटपटाहट का इजहार कर रहे हैं। इनमे हजारों वे हैं, जो मिलिट्री भर्ती की परिक्षा के तीन चरण – फिजिकल, लिखित और मेडिकल – पार कर चुके हैं। ऐन नियुक्ति के वक़्त भर्ती निरस्त कर अग्निपथ लाई गयी है। लाखों वे हैं, जो अगली भर्ती की तैयारी में जमीन आसमान एक कर चुके हैं। वे सिर्फ अपने रोजगार के लिए नहीं लड़ रहे – जिनके खून में व्यापार है, उनके भेड़िया नाखूनों से देश को बचाने के लिए भी लड़ रहे हैं।

✒️आलेख:-बादल सरोज(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और ‘लोकजतन’ के संपादक हैं। संपर्क : 094250-06716)