राष्ट्रपति पद के अवमूल्यन के खिलाफ भी होगा यह चुनाव!

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सोलहवें राष्ट्रपति चुनाव में ठीक-ठीक क्या होने जा रहा है, इस पर बेशक अभी अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। बहरहाल, इस बार राष्ट्रपति पद के लिए मुकाबला वास्तविक होना तय है। 19 विपक्षी पार्टियों के उम्मीदवार के तौर पर, पूर्व-वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नाम की घोषणा के फौरन बाद, सत्ताधारी एनडीए की ओर से भी झारखंड की पूर्व-राज्यपाल, द्रौपदी मुर्म के नाम की घोषणा कर दी गयी। भाजपा ने राष्ट्रपति पद के लिए अपने उम्मीदवार का नाम तय करने के साथ ही यह भी साफ कर दिया है कि वह अपने इस चयन को ‘पहली बार किसी आदिवासी को और उस पर आदिवासी महिला को राष्ट्रपति भवन में पहुंचाने’ के प्रयास के रूप में प्रचारित करने के सहारे, एनडीए से बाहर से भी कुछ वोट बटोरने की उम्मीद करती है, जिससे राष्ट्रपति चुनाव के निर्वाचक मंडल के आधे के समर्थन तक पहुंचने में जो थोड़ी कसर रह गयी थी, उसे पूरा किया जा सके। प्रसंगत: बता दें कि ओडिशा में सत्तासीन बीजू जनता दल के सुप्रीमो नवीन पटनायक ने, ओडिशा में पैदा हुई तथा राज्य सरकार में मंत्री भी रहीं, सुश्री मुर्मू के राष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार बनाए जाने को अपने राज्य के लिए गौरव का विषय बताकर, उनको समर्थन देने का एक प्रकार से इशारा भी कर दिया है। जानकारों के अनुसार, एनडीए उम्मीदवार के लिए बाहर से बीजद का समर्थन ही, चुनाव में उसकी जीत सुनिश्चित करने के लिए काफी होगा!

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि यही सुनिश्चित करने के लिए भाजपा ने, सिर्फ सत्ताधारी एनडीए गठबंधन के अंदर ही नहीं, बल्कि सभी राजनीतिक ताकतों से नये राष्ट्रपति के चुनाव के मुद्दे पर ‘संवाद’ की रस्मअदायगी करना जरूरी समझा था। इस रस्म अदायगी का मकसद यही था कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच की रोजमर्रा की रस्साकशी के प्रति ‘तटस्थता’ की तथा मुद्दे के गुण-दोष के आधार पर रुख अपनाने की मुद्रा अपनाने वाली, बीजू जनता दल जैसी पार्टियों के लिए, जरूरत पड़े तो यह कहने का मौका रहे कि वे तो सत्तापक्ष के उम्मीदवार को नहीं, बल्कि एक वृहत्तर सहमति से तय हुए उम्मीदवार को या सुपात्र को अपना समर्थन दे रहे हैं, आदि। ऐसा समझा जाता है कि भाजपा के वार्ताकारों ने सुश्री मुर्मू के नाम पर नवीन पटनायक से पहले ही हामी भरवा ली थी।

वैसे, राष्ट्रपति पद के लिए व्यापक सहमति बनाने की कोशिश का सत्ताधारी भाजपा का यह स्वांग कितना खोखला था, इसका अंदाजा एक साधारण से तथ्य से ही लगाया जा सकता था। जिस रोज राष्ट्रपति पद के लिए मिलकर एक उम्मीदवार तय करने के लिए, नई-दिल्ली में कांस्टीट्यूशन क्लब में, प0 बंगाल की मुख्यमंत्री, सुश्री ममता बैनर्जी के निमंत्रण पर प्रमुख विपक्षी पार्टियों की पहली बैठक हुई, ठीक उसी रोज सत्ताधारी एनडीए की ओर से वरिष्ठï भाजपा नेता व रक्षा मंत्री, राजनाथ सिंह और भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा द्वारा इसी चुनाव के सिलसिले में ‘दूसरी’ पार्टियों के साथ चर्चा की प्रक्रिया शुरू की गयी और वह भी उम्मीदवार नाम के किसी ठोस प्रस्ताव के बिना ही!

बेशक, विपक्षी पार्टियों की 15 जून की नई-दिल्ली की बैठक में भी उम्मीदवार के नाम का कोई ठोस फैसला नहीं किया जा सका था। इसका कुछ संबंध इस तथ्य से भी है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री व टीएमसी सुप्रीमो ममता बैनर्जी ने खासतौर पर कांग्रेस से इस पहल का मौका छीनने की हड़बड़ी में, प्रमुख राजनीतिक पार्टियों/नेताओं से पूर्व-परामर्श के बिना ही जिस इकतरफा तरीके से यह बैठक बुलायी थी, उसके चलते इस बैठक में ठोस नाम तय करने की दिशा में ज्यादा आगे बढ़ पाना मुश्किल था। बुजुर्ग मराठा नेता, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार का नाम जरूर एक प्रभावशाली संभावित उम्मीदवार के रूप में पहले से उठ रहा था, लेकिन उनकी ओर से पहले ही यह कहकर अनिच्छा जतायी जा चुकी थी कि वह अभी सक्रिय राजनीति से अलग नहीं होना चाहते हैं। बहरहाल, इस बैठक में शामिल हुईं 17 राजनीतिक पार्टियों ने, जो कम से कम पांच बड़े राज्यों में सरकारें भी चला रही हैं, मिलकर राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला जरूर ले लिया। उम्मीदवार के नाम पर आगे परामर्श करने के लिए शरद पवार समेत तीन नेताओं का ग्रुप बना दिया गया और हफ्ता बीतने से पहले ही विपक्ष के उम्मीदवार के नाम की घोषणा भी कर दी गयी।

पूछा जा सकता है कि विपक्ष राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव कराने के लिए क्यों बजिद है? राष्ट्रपति का पद तो वैसे भी भारत मेें प्रतीकात्मक ही ज्यादा है। ऐसे प्रतीकात्मक पद के मामले में भी विपक्ष देश की राय को विभाजित करने पर ही क्यों आमादा है, जबकि सरकार अपनी ओर से आम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है? देश की राय के विभाजन, सरकार की आम सहमति की कोशिश और राष्ट्रपति की भूमिका, इन तीनों नुक्तों का संक्षिप्त, किंतु बहुत ही सटीक जवाब, विपक्षी पार्टियों की नई-दिल्ली बैठक द्वारा स्वीकार किए गए प्रस्ताव के व्यावहारिक पैरा में दे दिया गया है : “आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में, जो भारत की स्वतंत्रता की 75वीं सालगिरह के वर्ष में हो रहा है, हमने एक साझा उम्मीदवार खड़ा करने का फैसला लिया है, जो सचमुच संविधान के संरक्षक की भूमिका अदा कर सकता हो और मोदी सरकार को भारतीय जनतंत्र तथा सामाजिक ताने-बाने को और नुकसान पहुंचाने से रोक सकता हो।”

इससे साफ है कि सत्तापक्ष जिस तरह राष्ट्रपति के पद को सिर्फ एक राष्ट्रीय प्रतीक में घटा देना चाहता है और इसके नाम पर सारे वास्तविक मुद्दों तथा उन पर राजनीतिक विभाजनों को ओट कर के, ‘राष्ट्रीय सर्वानुमति’ का तकाजा कर रहा है, देश में विपक्ष की मुख्यधारा को ये दोनों ही मंजूर नहीं हैं। विपक्ष आग्रहपूर्वक मोदी सरकार द्वारा भारतीय जनतंत्र तथा सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाए जाने को, इस चुनाव में विभाजन का बुनियादी आधार बनाना चाहता है और वह सिर्फ राष्ट्रीय शोभाचक्र से भिन्न, राष्ट्रपति की भारतीय संविधान के संरक्षक की भूमिका पर जोर दे रहा है और राष्ट्रपति से अपेक्षा करता है कि अपनी इस भूमिका में वह, वर्तमान में मोदी सरकार को और वास्तव में किसी भी सरकार को, भारतीय जनतंत्र तथा उसके सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाने रोकेगा।

एक माने में एकजुट विपक्ष, मोदी राज में दूसरी तमाम संवैधानिक संस्थाओं की तरह, राष्ट्रपति पद के भी अवमूल्यन के खिलाफ भी लड़ रहा है। बेशक, भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति की संकल्पना, एक्जिक्यूटिव प्रेसीडेंसी से बिल्कुल भिन्न है। लेकिन, यह संकल्पना एक निष्प्राण प्रतीक मात्र या रबर स्टाम्प की भी नहीं है। यही नहीं, यह संकल्पना सिर्फ सरकार के गठन के लिए, दावेदार के चयन के समय ही जागने तक सीमित सक्रियता की भी नहीं है। राज्य के प्रमुख और संविधान के संरक्षक होने के नाते राष्ट्रपति को, कार्यपालिका के रोजमर्रा के काम-काज में दखल न देते हुए भी, उसके निर्णयों पर सवाल करने, उन पर पुनर्विचार करने के लिए कहने तथा कार्यपालिका को सुझाव, मशविरा देने यानी संक्षेप में अगर सही रास्ते से विचलित होती नजर आए, तो कार्यपालिका को रोकने-टोकने अधिकार तो अवश्य है। विपक्ष, संविधान के संरक्षक की अपनी इस भूमिका को मुस्तैदी से निभाने वाला राष्ट्रपति चाहता है।

मोदी राज के आठ साल का और खासतौर पर वर्तमान राष्ट्रपति के कार्यकाल के पांच साल का अनुभव बताता है कि मौजूदा निजाम को, ऐसा राष्ट्रपति हर्गिज-हर्गिज मंजूर नहीं होगा। उसे तो कोरा रबर स्टाम्प चाहिए और हां, शोभा तथा गले में हार डालने के लिए, एक मूर्ति भी। तमाम संस्थाओं तथा व्यक्तित्वों के ‘सम्मान’ की इसी शैली को तो मोदी राज ने एक कला के दर्जे तक पहुंचाया है। अचरज नहीं कि विपक्ष राष्ट्रपति पद के ‘सम्मान’ के लिए एकता के इस झांसे में आने के लिए तैयार नहीं है। और वह इस झांसे में आए भी तो कैसे?

ठीक जिस समय मोदी राज के प्रतिनिधि के नाते राजनाथ सिंह और जे पी नड्डा, राष्ट्रपति पद के लिए आम-सहमति की तलाश का स्वांग कर रहे थे, उसी समय तीन ऐसी चीजें उन्मुक्त हो रही थीं, जो मौजूदा निजाम और विपक्ष की मुख्यधारा के बीच की खाई को ही नहीं, बल्कि उनके बीच विरोध के तीन बुनियादी पहलुओं को भी और गाढ़े रंग से रेखांकित कर रही थीं। पहली, तमाम जनतांत्रिक नियम-कायदों तथा मर्यादाओं को ताक पर रखकर, प्रवर्तन निदेशालय के जरिए मुख्य विपक्षी पार्टी के शीर्ष नेताओं को, भ्रष्टाचार के सरासर गढ़े हुए मामले में फंसाने की कोशिश, जो बढ़ती तानाशाही का ताजातरीन साक्ष्य है।

दूसरी, सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं द्वारा मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाली बयानबाजी के खिलाफ समुचित कार्रवाई करने से इंकार करने के ऊपर से, इसके खिलाफ विरोध जताने के लिए मुसलमानों के विरोध प्रदर्शनों के साथ, दुश्मनों जैसा सलूक, जो शासन के ज्यादा से ज्यादा बहुसंख्यकवादी होते जाने का सबूत है। उत्तर प्रदेश तथा अन्य भाजपाशासित राज्यों में मुसलमानों के खिलाफ सरकार के बुलडोजर अन्याय और मनमानी के राज का तो सुप्रीम कोर्ट तक ने हाल ही में संज्ञान लिया है और उत्तर प्रदेश सरकार से सफाई मांगी है।

तीसरी, राज्यों की शक्तियों व संसाधनों का केंद्र द्वारा ज्यादा से ज्यादा हथिआया जाना, जो संघीय व्यवस्था के ज्यादा से ज्यादा खोखला किए जाने का सबूत है। नीट जैसी केंद्रीयकृत परीक्षाओं का राज्यों पर थोपा जाना भी इसी का सबूत है, जिसका तमिलनाडु सरकार शुरू से ही विरोध करती आयी है। अगर वास्तव मेें कोई विपक्ष है, तो इन हालात में मौजूदा राज को चुनौती देगा या मनचाहे राष्ट्रपति के जरिए उसका रास्ता आसान बनाएगा?

राष्ट्रपति चुनाव के जरिए विपक्ष की यह लड़ाई न सिर्फ जरूरी है, बल्कि सत्रह पार्टियों के साथ आने से मुकाबला होना तो तय भी हो गया है। बेशक, इस प्रक्रिया में अभी कुछ और विपक्षी पार्टियों के जुडऩे की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। फिर भी, फिलहाल इन सत्रह पार्टियों का एक उम्मीदवार खड़ा करने की जरूरत पर सहमत होना, इसका भी इशारा करता है कि विपक्षी पार्टियों के आपसी समीकरणों के तमाम उलझावों तथा राज्यों के स्तर पर उनके सारे आपसी टकरावों व लाग-डांट के बावजूद, जनतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था की हिफाजत के लिए उनके एकजुट होने की उल्लेखनीय संभावनाएं मौजूद हैं। ये संभावनाएं आम चुनाव के लिए समूचे विपक्ष के एक अखिल भारतीय मोर्चे का रूप तो शायद नहीं ही ले सकती हैं, फिर भी चुनाव के पहले राज्यस्तर पर सीमित तालमेलों और चुनाव के बाद किसी वैकल्पिक सरकार के लिए देश के पैमाने पर इन ताकतों के तालमेल तक अवश्य ले जा सकती हैं।

बहरहाल, फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव का मुकाबला किस हद तक एक वास्तविक मुकाबला बनता है, यह इस पर निर्भर करेगा कि विपक्ष ने इस मुकाबले का जो पाला खींचा है, उसमें आप, बीजद, टीआरएस जैसी और कितनी पार्टियां, एकजुट विपक्ष के साथ आती हैं। याद रहे कि यह एक सचाई है कि अगर पूरा विपक्ष एकजुट हो जाए, तो एनडीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हार का मुंह भी देखना पड़ सकता है। बेशक, मोदी राज के ‘इलैक्टोरल मैनेजमेंट’ को देखते हुए, यह आसान नहीं होगा, बल्कि बहुत ही मुश्किल होगा। फिर भी, इसकी सैद्घांतिक संभाव्यता भी, मौजूदा निजाम को चुनावी मुकाबले में हराए जा सकने की उम्मीद तो बढ़ाती ही है। वंचितों को आत्मघाती हिंसा के दुश्चक्र में फंसने से बचाने के लिए, इसकी भी बहुत जरूरत है।

✒️आलेख:-राजेंद्र शर्मा(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं। संपर्क : 098180-97260)