भारतीय शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ!

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(उस्ताद अलाउद्दीन खान स्मृतिदिन)

उस्ताद अल्लाउद्दीन खान को बाबा अल्लाउद्दीन नाम से भी जाना जाता है। ये एक बंगाली सरोद वादक, बहु-वाद्ययंत्र में निपुण और भारतीय शास्त्रीय संगीत के जाने-माने 20वीं सदी के संगीतकार और संगीत शिक्षक थे। इन्होंने वर्ष 1935 में उदयशंकर के साथ कार्यक्रम में भाग लेने के लिए यूरोप की यात्रा की और बाद में कुछ दिनों तक इन्होंने उदयशंकर के संगीत प्रशिक्षण संस्थान उदय शंकर इंडियन कल्चर सेंटर अल्मोरा में भी अपना योगदान दिया। अपने जीवनकाल में इन्होंने बहुत से संगीत के रागों का निर्माण किया और आधुनिक मैहर घराना की नींव भी रखी। इस बीच वर्ष 1959-60 में आल इंडिया रेडियोने इनके संगीत के विभिन्न रागों की रिकार्डिंग की। इसके अतिरिक्त इन्होंने अन्य संगीत संस्थानों को भी आगे बढ़ाने में योगदान दिया। प्राचीन भारतीय शास्त्रीय संगीत और पाश्चात्य संगीत को वर्तमान के साथ सवारने में इनका योगदान अविस्मरणीय है। वे सरोद वादक अली अकबर खान और अन्नपूर्णा देवी के पिता, रजा हुसैन खान के चाचा तथा महान संगीतज्ञ पंडित रवि शंकर, निखिल बेनर्जी, वसंत राय, पन्नालाल घोष, बहादुर खान, शरन रानी, ज्योतिन भट्टाचार्य और अन्य प्रसिद्ध संगीतज्ञों के संगीत गुरु भी थे।

ये स्वयं भी बहुत से महान भारतीय शास्त्रीय संगीतज्ञों जैसे- गोपाल चन्द्र बेनर्जी, लोबो और मुन्ने खान के शागिर्द रहे और उनसे संगीत के गूढ़ रहस्यों को समझा। इसके अतिरिक्त, अपने संघर्ष के दिनों में वे तत्कालीन महान वीणा वादक वज़ीर खान के भी शागिर्द रह चुके थे।
अल्लाउद्दीन खान का जन्म वर्ष 1862में तत्कालीन भारत- वर्तमान बांग्लादेश के ब्रह्मंबरिया जिले में स्थित नबीनगर तहसील के शिवपुर गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम सबदर हुसैन खान उर्फ़ साधु खान था। इन के बड़े भाई फ़क़ीर अफ्ताबुद्दीन खान ने इन्हें संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर दी। मात्र 10 साल की उम्र में ही ये घर छोड़कर भाग गए और बंगाल के पारंपरिक जात्रा थिएटर में काम करने लगे। यहाँ पर इन्हें समृद्ध बंगाली लोक-कला को जानने का अवसर मिला। कुछ समय बाद ये कोलकाता चले गए, जहाँ पर इनकी मुलाकात उस समय के प्रसिद्ध गायक गोपाल कृष्ण भट्टाचार्य उर्फ़ नुलो गोपाल से हुई। जो एक सम्भ्रांत और कट्टर हिन्दू थे।

उन्होंने सोचा कि अगर वे अपने को हिन्दू घोषित कर गोपाल कृष्ण भट्टाचार्य के पास जाएं तो अच्छा होगा, जिससे उन्हें गायकी की शिक्षा मिल सकती थी। इसलिए उन्होंने अपना हिन्दू नाम तारा प्रसाद सिन्हा रखा और उनके शिष्य बन गए। इन्होंने 12 वर्षों तक गुरु के संरक्षण में गीत-संगीत का अभ्यास करने का वचन दिया, परन्तु 7 वर्ष बाद ही खान के गुरु का प्लेग की बीमारी के कारण निधन हो गया। इसके बाद ये गुरु अमृतलाल दत्त के शागिर्द बन गए, जो महान भारतीय दार्शनिक स्वामी विवेकानंद के रिश्तेदार और कोलकाता स्टार थिएटर के डायरेक्टर थे। खान का एकमात्र उद्देश्य वाद्ययंत्र में महारत हासिल करना था। इस दौरान इन्होंने यूरोपियन संगीत और वायलिन का अभ्यास लोबो से किया, जो गोवा में उस समय बैंड मास्टर थे। वर्ष 1888 में इनका विवाह मदनमंजरी देवी के साथ हुआ। इनको एक पुत्र अली अकबर खान तथा तीन बेटियां शारिजा, जहानारा और अन्नपूर्णा- रोशनारा खान पैदा हुए। शारिजा का अल्पायु में ही निधन हो गया. दूसरी बेटी जहानारा की शादी हो गयी, जहाँ पर उसकी सांस ने संगीत से द्वेषवश उसके तानपुरे को जला दिया। इस घटना से दु:खी होकर खान ने निश्चय किया कि वे अपनी छोटी बेटी को संगीत की शिक्षा नहीं देंगे। एक दिन जब वे कहीं से घर वापस आये तो उन्होंने देखा कि अन्नपूर्णा अपने भाई अली अकबर खान को पढ़ा रही है, उसकी यह कुशलता देखकर पिता का मन बदल गया। बाद में अन्नपूर्णा ने शास्त्रीय संगीत, सितार और सुरबहार- बांस का सितार बजाना अपने पिता से सिखा। आगे चलकर इसकी शादी रविशंकर के साथ हुई।

सरोद विशेषज्ञ, अलाउद्दीन खान तत्कालीन मैहर एस्टेट- मध्य-प्रांत के महाराजा बृजनाथ सिंह के दरबारी संगीतकार थे। हालांकि मैहर घराने की स्थापना 19वीं सदी में हुई थी, लेकिन मैहर संगीत शैली और मैहर घराने एवं प्राचीन भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुनरोत्थान का श्रेय इन्हें ही दिया जाता है। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवनकाल मैहर में गीत-संगीत के साथ व्यतीत किया। यहाँ पर इन्होंने वर्ष 1955 में मैहर कॉलेज ऑफ म्यूजिक की स्थापना की। बाद में खान को मुक्तागाछा के जमींदार जगत किशोर आचार्य द्वारा आयोजित एक संगीतमय कार्यक्रम में भाग लेने के बाद सरोद वादन में विशेष रुचि पैदा हो गई। इस कार्यक्रम में अलाउद्दीन खान को असगर अली खान के शागिर्द अमजद अली खान द्वारा सरोद को बजाते देखकर इनके मन में सरोद वादन के प्रति विशेष रूचि पैदा हो गई। इसके बाद ये असगर अली खान के शागिर्द बन गए और पांच वर्षों तक सरोद का कठिन अभ्यास किया। परन्तु यहाँ भी संगीत के प्रति खान की प्यास पूर्णरूप से बुझ नहीं पाई। इसके बाद ये रामपुर के लिए रवाना हो गए, जहाँ पर इन्होंने नवाब के दरबारी वजीर खान बीनकर से संगीत की शिक्षा ग्रहण की।

वजीर खान बीनकर के माध्यम से अलाउद्दीन खान ने भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रतिष्ठित सेनिया घराने में प्रवेश पाने में सफलता प्राप्त की। जिसे तानसेन स्कूल ऑफ म्यूजिक के नाम से भी जाना जाता है। यह विशेष घराना उत्तर भारत के सबसे प्रतिष्ठित संगीत शिक्षा के केन्द्रों में शामिल है। उस्ताद ने प्राचीन भारतीय जटिल भारतीय रागों- धुन को छोड़कर बहुत से नए अपने राग बनाए जिनमें से प्रमुख हैं- अर्जुन, भगबती, भीम, भुवनेश्वरी, चंडिका, धवलश्री, धनकोष, दीपिका, दुर्गेश्वरी, गांधी, गांधी बिलावल, हेमंती, हेम-बेहाग, हेमंत, हेमंत भैरव राग, इम्नी मांझ, जौनपुरी तोडी, केदार मांझ, कोमल भीमपलासी, कोमल मारवा, मदनमंजरी, मधावश्री, मधावगिरी, मलाया, मांझ खमाज, मेघबहार, मुहम्मद, नट-खमाज, प्रभाकली, राज बिजोय, राजेश्री, शोभावती, सुगंधा और सुरसती राग आदि। इनमें से राग मांझ खमाज को सबसे अच्छा माना जाता है। उनके रागों की कुछ सीडी भी बाजारों में जारी की गई हैं।

वर्ष 1952 में इन्हें संगीत नाटक अकादेमी ने भारतीय संगीत को आजीवन विशेष योगदान के लिए अपने सर्वोच्च सम्मान स्वरुप संगीत नाटक अकादेमी फ़ेलोशिप प्रदान किया। वर्ष 1958 में इन्हें भारत सरकार ने अपने तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म भूषण से और वर्ष 1971 में इन्हें अपने दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया। अलाउद्दीन खान का निधन वर्तमान मध्य प्रदेश के मैहर में दि.6 सितम्बर 1972 को हो गया।

!! पुरोगामी न्युज परिवार की ओरसे उनको उनके ही स्मृतिदिन के पावन पर्व पर भावभिनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पण !!

✒️श्री कृष्णकुमार गोविंदा निकोडे गुरूजी(लेखक तथा कवी)
गढचिरौली,मो:-7775041086