“क्या मिला अर्जे मुद्दआ करके, बात भी खोई इल्तज़ा करके।”

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दस साल पहले की, 20 अगस्त 2012 की बात है। ईद का त्यौहार था। आरएसएस के पांचवें सरसंघचालक, जो तब तक भूतपूर्व हो चुके थे और भोपाल में रहा करते थे, अचानक सुबह के वक़्त ईद की नमाज पढ़ने के लिए भोपाल की सबसे बड़ी मस्जिद ताजुल मसाजिद के लिए निकल पड़े। उनके साथ रहने वाले संघ के स्टॉफ और पुलिस गार्ड्स ने उन्हें बहुत मनाया, रोका मगर वे नहीं रुके। आखिर में ट्रैफिक जाम का बहाना बनाकर गाडी बीच सड़क पर रोकी गयी और आनन-फानन में भाजपा के वरिष्ठ नेता और मंत्री बाबूलाल गौर को मौके पर बुलाया गया। उन्हें भी सुदर्शन को समझाने में आधा घंटा लग गया, तब कहीं जाकर बमुश्किल वे – बिना नमाज़ अदा किये – वापस जाने के लिए राजी हुए।

पूरे दस साल बाद अब चक्र पूरी तरह घूमता नजर आ रहा है। आरएसएस के मौजूदा सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत दिल्ली के कस्तूरबा गांधी मार्ग पर स्थित एक मस्जिद में भी गए, मदरसे में भी बैठे, यहां उन्होंने ऑल इंडिया इमाम ऑर्गनाइजेशन के कथित चीफ इमाम डॉ. इमाम उमर अहमद इलियासी से मुलाकात की, मौलवियों से गुफ्तगू भी की। जाहिर है कि आरएसएस प्रमुख की मस्जिद विजिट एक नयी घटना है, और यह जियारत नहीं है, साफ़-साफ़ सियासत है। इससे पहले मस्जिदों तक पहुँचने के मामले में आरएसएस का नाम मालेगाँव, मक्का मस्जिद और ऐसे ही दीगर मामलों में आता रहा था। कहने की जरूरत नहीं कि ये सभी मामले मस्जिदों में जाकर इमामों और मौलवियों और हाफिजों के साथ मिलने-मिलाने के नहीं थे। इस बार सरसंघचालक खुद पहुंचे।

इस मुलाक़ात के साथ ही यह खबर भी आई कि इसके कोई एक महीना पहले वे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी और दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग समेत मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक समूह, जिसमें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) जमीरुद्दीन शाह, पूर्व सांसद और पत्रकार शाहिद सिद्दीकी, और व्यवसायी सईद शेरवानी से भी काफी देर तक चर्चा की थी।

इमाम इलियासी द्वारा डॉ. मोहन भागवत को राष्ट्रपिता का तमगा देने और भागवत द्वारा विनम्रतापूर्वक खुद को राष्ट्र-पुत्र बताने की मजाहिया शोशेबाजी को छोड़ भी दें, तो भी इन भेंट-मुलाकातों को लेकर अलग-अलग तरीके के कयास लगाए गए हैं। कुछ लोग हैरान हुए हैं भागवत को मस्जिद में देखकर और इसे “हो गया दूर जो साहिल तो खुदा याद आया” जैसा कुछ मान रहे हैं। कईयों के हिसाब से यह बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय अलगाव को पूरने के लिए किया गया मीडिया इवेंट है, तो कुछ इसे लगातार उभरते जन-असंतोष और अगली दोनों सालों में एक-के-बाद-एक होने वाले चुनावों के साथ जोड़कर की जा रही कोशिशें मान रहे हैं। कुछ सदाशयी और भले लोग इसे इससे भी आगे बढ़कर आंक रहे हैं और मान रहे हैं कि यह आरएसएस को भारत की हजारों वर्ष पुरानी साझी विरासत और मेलमिलाप की परम्परा का अचानक हुआ भास है और इस तरह यह एक ह्रदयहीन संगठन का हृदय परिवर्तन है, एक आत्मा विहीन विचारधारा का आत्म साक्षात्कार और आत्म सुधार है। मगर दरअसल यह इनमे से कुछ भी नहीं, बल्कि सही मायनों में यह इसका ठीक उलटा – आरएसएस के हिंदुत्व के इरादों का विस्तार – है। मुस्लिम समुदाय में अपने मुरीदों को उनका कथित प्रतिनिधि बनाकर हिन्दू राष्ट्र के अपने अजेंडे को आगे ले जाने का सोचा समझा व्यवहार है।

ध्यान रहे, आरएसएस ने मुसलमानों के निषेध की बात कभी नहीं की। उसकी बिगुल वादक और नारा लगाऊ ब्रिगेड और भक्त-मण्डली भले ही मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने की चीख-पुकार मचाती हो, मगर उनकी डोरियां जिन अँगुलियों में बंधी हैं, वे जानते हैं कि यह मुमकिन नहीं है। और फिर आरएसएस तो पाकिस्तान बनने के भी पहले से अस्तित्व में है। धर्म के आधार पर दो राष्ट्र बनाने के साथ ही यह अखण्ड हिन्दू राष्ट्र की जो भौगोलिक कल्पना प्रस्तुत करता है, उसमें तो मुस्लिम बहुसंख्या और गैर-हिन्दू धर्मों को मानने वाली आबादी वाले देश और इलाके भी शामिल हैं। इनके साथ निबटने का उनका नुस्खा अलग है। गैर-हिन्दू अल्पसंख़्यक समुदाय के लिए उनका साफ़ कहना है कि वे “या तो बिना किसी नागरिक अधिकार वाले दूसरे दर्जे के नागरिक बन कर रहें या फिर हिन्दू धर्म में समाहित हो जाएँ।” इलियासी से “राष्ट्रपिता” की उपाधि लेते हुए मोहन भागवत जब मदरसों में गीता पढ़ाने की सलाह दे रहे थे और मुस्लिम बुद्धिजीवियों से चर्चा के दौरान राष्ट्र निर्माण और उसके लिए जिस तरह के सुधार, अपने-अपने समुदाय के “गर्म मिजाज” लोगों को काबू में रखते हुए सामान्य वातावरण की बहाली और पारस्परिक समायोजन की चाक़ू की पसलियों से गुजारिश मार्का बात कर रहे थे, तब इसी अजेंडे को आगे बढ़ा रहे थे।

अल्पसंख़्यक समुदाय को डराने और आतंकित करने का एक तरीका इस तरह के संवाद भी होते हैं, जिनके जरिये उनके अंदर अधीनता भाव विकसित किया जाता है, आश्रयदाता और आश्रित का अंतर साफ़-साफ़ उभारा जाता है। दोनों काम साथ-साथ चलते हैं। इन मुलाकातों की खबर आने के ठीक बाद पीएफआई पर प्रतिबंध लगाने के बाद उसके नाम पर, उसके बहाने देश भर में जो माहौल बनाया जा रहा है, वह इसी का उदाहरण है। यह सिर्फ संयोग नहीं है। कुछ अतिवादी व्यक्तियों और संगठनों के कारनामों के बहाने पूरे समुदाय के खिलाफ जहरीला प्रचार करके उन्मादी वातावरण बनाना आरएसएस की आजमाई हुए कार्यशैली है।

एक बड़ा सवाल और है। कहा जाता है कि इन भेंट मुलाकातों में “दोनों पक्षों” ने सांप्रदायिक सद्भाव व समुदायों के बीच मतभेदों को दूर करने की आवश्यकता पर जोर दिया। इस पहल को आगे बढ़ाने के लिए एक योजना तैयार की। सांप्रदायिक सौहार्द को मजबूत बनाने और अंतर-सामुदायिक संबंधों में सुधार पर व्यापक चर्चा की। सहमति व्यक्त की कि समुदायों के बीच सांप्रदायिक सद्भाव व सुलह को मजबूत किए बिना देश प्रगति नहीं कर सकता। वगैरा-वगैरा। सवाल यह है कि एक इमाम और पांच बुद्धिजीवी सारे मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि कब बने और किसने बनाये? आरएसएस और उसके सरसंघचालक भारत के समूचे हिन्दू समुदाय के ठेकेदार हैं, यह कहाँ तय हो गया? संविधान से चलने वाले एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में इस तरह के मसलों पर कथित धार्मिक समुदाय प्रमुखों के बीच चर्चा और पंचायत करने वाला कबीलाई समाज का अंदाज कब से दस्तूर बन गया? इन “दोनों पक्षों” ने क्या अपने-अपने समुदायों की वास्तविक तकलीफों के बारे में कुछ सोचा विचारा? नहीं। आसिफा, बिलकिस बानो, टारगेट बनाकर किये जा रहे हमले जैसे ठोस मसले – जिनमे आरएसएस की संबद्धता जगजाहिर है – चर्चा में नहीं उठे। “दोनों पक्षों” को सुधारने जैसी अनुपातहीन, अनावश्यक और साफ़-साफ़ दोनों को बराबरी पर खड़ा कर देने का प्रयास हुआ। यह ठीक वैसा ही था कि “दोनों ही पक्ष आये थे तैयारियों के साथ / ये गर्दनों के साथ थे वे आरियों के साथ।” ठीक यही स्थिति है, जिसे आरएसएस लाना चाहता है – सभ्य समाज के सारे प्रशासनिक संस्थानों को निरर्थक बनाकर धर्मगुरुओं को अपने-अपने धर्म अनुयायियों का प्रतिनिधि बना देना और राष्ट्रीय महत्व के गंभीर सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों का निराकरण उन्हें सौंप देना। लोकतांत्रिक समाज में यह एक ऐसी रात है, जिसकी कोई सुबह नहीं होगी।

आरएसएस तो शुरू से ही समाज को इस रपटीली गहराई के मुहाने पर खड़ा कर देने की कोशिश में लगा रहा है, इमाम इलियासी ने अपनी किस निजी मजबूरी में यह स्वांग किया है, यह ज्यादातर लोग जानते हैं। मगर मोहतरम एस. वाई. कुरैशी, पूर्व कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) जमीरुद्दीन शाह, शाहिद सिद्दीकी और सईद शेरवानी की मुलाक़ात और उनके बचकाने आशावाद को देखकर उर्दू के मशहूर शायर पण्डित दयाशंकर नसीम की ग़ज़ल के दो शेर याद आये ;

“क्या मिला अर्जे मुद्दआ करके
बात भी खोई इल्तज़ा करके।

लाये उस बुत को इल्तज़ा करके
कुफ़्र टूटा, खुदा खुदा करके ।”

✒️आलेख : बादल सरोज(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)