लोकशाहीची धारा बदलणारी काव्य रचना

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    आज संपूर्ण विश्वासमोर निसर्गात केलेल्या हस्तक्षेपाचे परिणाम स्वरूप ‘कोरोना’ ही आपत्ती उभी ठाकली आहे. या आपत्तीने विश्वात एकूणच मोठे आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आणि मनोवैज्ञानिक पडसाद उमटत आहेत.

    अंतिम व्यक्ति लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है!
    – मंजुल भारद्वाज

    भारतीय समाज और व्यवस्था का
    अंतिम व्यक्ति चल रहा है
    वो रहमो करम पर नहीं
    अपने श्रम पर
    ज़िंदा रहना चाहता है
    व्यवस्था और सरकार
    उसे घोंट कर मारना चाहती है
    अपने टुकड़ों पर आश्रित करना चाहती है
    उसे खोखले वादों से निपटाना चाहती है
    अंतिम व्यक्ति का विश्वास
    सरकार से उठ चुका है
    उसे अपने श्रम शक्ति पर भरोसा है
    जब भगवान, अल्लाह के
    दरबार बन्द हैं
    उनकी ठेकेदारी करने वाली
    यूनियन लापता हैं
    तब अंतिम व्यक्ति ने
    अपनी विवशता को ताक़त में बदला है
    मरना निश्चीत है तो
    स्वाभिमान से जीने का संघर्ष हो
    अंतिम व्यक्ति अपनी मंज़िल पर चल पड़ा है
    वो हिंसक नहीं है
    पुलिस और व्यवस्था की हिंसा सह रहा है
    मुख्य रास्तों की नाका बन्दी तोड़
    नए रास्तों पर चल रहा है
    उसके इस अहिंसक सत्याग्रह ने
    सरकार को नंगा कर दिया है
    सोशल मीडिया, ट्विटर ट्रेंड के
    छद्म को ध्वस्त कर दिया है
    गोदी मीडिया को 70 महीने में
    पहली बार निरर्थक कर दिया है
    अंतिम व्यक्ति का
    यह सविनय अवज्ञा आंदोलन है
    लोकतंत्र की आज़ादी के लिए
    वो कभी भूख से मर रहा है
    कभी हाईवे पर कुचला जा रहा है
    कहीं रेल की पटरी पर मर रहा है
    पर अंतिम व्यक्ति चल रहा है
    जब मध्यम वर्ग अपने पिंजरों में
    दिन रात कैद है
    तब भी यह अंतिम व्यक्ति
    दिन रात चल रहा है
    सरकार को मजबूर कर रहा है
    अपनी कुर्बानी से मध्यम वर्ग के
    ज़मीर को कुरेद रहा है
    ज़रा सोचिए देश बन्दी में
    यह अंतिम व्यक्ति लोकतंत्र के लिए
    लड़ रहा है
    यह गांधी की तरह
    अपनी विवशता को
    अपना हथियार बना रहा है
    शायद गांधी को पहले से पता था
    उसके लोकतंत्र और विवेक का
    वारिसदार अंतिम व्यक्ति होगा !

    आजच्या काळात जिथे बाजारवाद , जागतिकीकरण लोकतंत्राच्या मूल्यांना ध्वस्त करत आहे, जिथे समाज संवेदनहीन होऊन टाळ्या व थाळ्या बडवत आहे, जिथे लोकप्रतिनिधी मूलभूत सेवांच्या पूर्ततेऐवजी घोषणाबाजी करत आहे तिथे मजूर प्रतिरोध करीत, गांधींच्या अहिंसेच्या मार्गावर चालत आहेत.
    मजुरांच्या सत्याग्रहाने मृतावस्थेत असलेल्या लोकशाहीला जिवंत केले. पुरोगाम्यांच्या गुर्मीला धाराशाई केले.
    सरकारला उत्तरदायित्व स्वीकारण्यास भाग पाडले. याच विचाराला मांडत रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज यांनी आपल्या रचनेतून नवे राजनैतिक सुत्रपात प्रस्थापित करीत आहेत.
    राजकीय परिघात यांच्या क्रांतिकारक काव्य रचनांवर चर्चात्मक संवाद घडत आहे. मजूर संघटना व त्यांचे प्रतिनिधी या काव्यरचनातून आपले राजकीय धरातल विश्लेषित करीत आहेत. नाटककार – कलाकार प्रत्यक्षात मजुरांच्या प्रश्नांवर काय मार्ग काढावा यावर संवाद साधत आहेत. संपादक व पत्रकार मजुरांच्या मुद्यांना अग्रणी धरत आहेत. राजनैतिक कार्यकर्ते लोकशाहीची संकल्पना मांडताना या कवितांचा आधाराने संवाद सुरू करत आहेत.

    बाहेरील शत्रूला धारातीर्थी करणारे, सीमेवर आपल्या रक्ताची आहुती देणारे सैनिक व रक्तबंबाळ पावलांनी भारतीय लोकशाहीला बळकट करणारे, देशातील शत्रूला देशहिताचा पाठ पडवणारे मजूर हे एकसमान आहेत. ही दृष्टी राजनैतिक परिप्रेक्ष्यात खोलवर प्रभाव सोडत आहेत. ज्याने संविधानाची मूळ अजून भक्कम होतील हे निश्चित.

    ✒️लेखिका:-सायली पावसकर
    रंगकर्मी
    pawaskarsayali31@gmail.com