परमात्मा का दर्शन ब्रह्मज्ञान से ही सम्भव

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पवित्र विचारों से मन पर वांछित संस्कार पड़ते हैं, उसका परिमार्जन होता है। उसमें उर्ध्वगामी होने की रुचि पुनः उत्पन्न होती है। मन मनुष्य के मनोरथों को पूरा करने वाला सेवक होता है। मनुष्य जिस प्रकार की इच्छा करता है, मन तुरंत उसके अनुकूल संचालित हो उठता है और उसी प्रकार की परिस्थितियाँ सृजन करने लगता है। मन आपका सबसे विश्वस्त मित्र और हितकारी बंधु होता है।यह सही है कि बुरे विचारों का त्याग श्रमसाध्य अवश्य है, किंतु असाध्य कदापि नहीं। सद्गुरू माता सुदीक्षा सविंदर हरदेव जी महाराज गुरुवचनामृत पिलाते हुए कहते है की पहले मन को स्थिर एवं सहज बनाना पडता है। तब हमारी आत्मा स्थिर निरंकार प्रभु परमात्मा में स्थिरता प्राप्त करेगी। जैसे सन्त तुकाराम जीने बताया –

“घेई घेई नाम वाचे, गोड नाम विठोबाचे ।
तुम्ही घ्यारे डोळे सुख, पहा विठोबाचे मुख ।
तुम्ही ऐकारे कान, माझ्या विठोबाचे गुण ।
मना तेथे धाव घेई, राहे विठोबाचे पायी ।
तुका म्हणे जीवा, नको सोडू या केशवा ।”
[सन्त तुकाराम अभंग गाथा : अभंग क्र. 756.]

विकृतियों के अनुपात में ही सत्प्रयासों की आवश्यकता है। बीसों साल की पाली हुई विकृतियों को कोई एक दो महीनों में ही दूर कर लेना चाहता है, तो वह गलती करता है। विकृतियाँ जितनी पुरानी होगी, उतने ही शीघ्र एवं दृढ़ अभ्यास की आवश्यकता होगी। अभ्यास में लगे रहिए, एक-दो साल ही नहीं, जीवन के अंतिम क्षण तक लगे रहिए। मानसिक विकृतियों से हार मानकर बैठे रहने वाला व्यक्ति जीवन में किसी प्रकार की सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। मन को परिमार्जित करने, उसे अपने अनुकूल बनाने में केवल विचारशक्ति ही नहीं, अपनी कर्मशक्ति भी लगाइए। जिस कल्याणकारी विचार को बनाएँ, उसे क्रिया रूप में भी परिणत कीजिए। इसलिए सन्त फ़रमाते है –

“आपण देव देहुरा आपणा आप लगावे पुजा ।
जल ते तरंग तरंग ते जल कहत सहज कौ दुजा ।।”
[सन्त नामदेव अभंग गाथा : अभंग क्र. 1818.]

इस युग में ज्ञान-दान की बड़ी आवश्यकता है। स्थूल दान का महत्व अब इसलिए कम हो गया है कि उसमें पात्र-कुपात्र का अंदाज नहीं होता, पर ज्ञान की आवश्यकता अच्छे-बुरे हर व्यक्ति के लिए है। उससे किसी का अहित नहीं हो सकता और न ही उस दान का दुरुपयोग किया जा सकता है। ज्ञान मनुष्य के सर्वतोमुखी विकास का साधन है। समाज में ज्ञानवान व्यक्ति अधिक सुखी और संतुष्ट समझे जाते हैं। समाज का एक वर्ग पढ़ा लिखा हो और दूसरा मूढ़ताग्रस्त हो, तो वह समाज दुःखी होगा। ज्ञान का उद्देश्य मानवमात्र को एक स्तर पर लाना है। कार्य निःसंदेह कुछ कठिन है, पर इसका महत्व अत्याधिक है। आज की स्थिति में सर्वोच्च दान ज्ञान को मानें, तो वह सर्वथा उपयुक्त ही होगा। ज्ञान तो दिपक है –

“त्रिभुवनीचा दीप प्रकाशु देखिला !
हृदयस्थ पाहिला जनार्दन !!
दिपाची ती वार्ता वातीचा प्रकाश !
कनिकामय दीप देही दिसे !!”
[सन्त एकनाथ अभंग गाथा : अभंग क्र. 2473.]

मनुष्यों पर श्रीगुरू का भी एक ऋण है। श्रीगुरू का अर्थ है वेद और वेद अर्थात ज्ञान। आज तक हमारा जो विकास हुआ है, उसका श्रेय ज्ञान को है, गुरु जी को है। जिस तरह हम यह ज्ञान दूसरों से ग्रहण कर विकसित हुए हैं, उसी तरह अपने ज्ञान का लाभ औरों को भी देना चाहिए। यह हर विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य है कि वे समाज के विकास में अपने ज्ञान का जितना अंश दान कर सकते हों, वह अवश्य करें। ज्ञान-दान मनुष्य को सन्मार्ग की ओर ले जाने के लिए किया जाता है, इसलिए यह अन्य दानों की अपेक्षा अधिक सार्थक होता है। समर्पण भाव परमात्मासे मिलन कराता है। जैसे सन्त सावता माळी जी कहते थे –

“सावता पांडुरंग स्वरुपी मीनला ।
देह समर्पिला ज्याचा त्यासी ।।”

ईश्वर का अस्तित्व, अध्यात्म का विषय है और उसे अनुभव किया जा सकता है। परमात्मा की व्यापकता और उसकी अभिव्यक्ति का अवगाहन हम उतना ही स्पष्ट कर सकते हैं, जितना हमारा अनुभव गहन और व्यापक होगा। दास तो कहता है की ईश्वर की भावना दास के हृदय में इस प्रकार घर कर गई है, उसे अंतःकरण से बाहर लाना कठिन जान पड़ता है। वो तो हमेशा दास के अंग संग रहता है। सन्त ज्ञानेश्वर जी अध्यात्म ज्ञान समझाते है –

“मोराचिया आंगि असोसे । पिसे आहाति डोळसे ।।
आणि एकली दिठी नसे । तैसे ते गा ।।
तैसे शास्त्रजात जाण । अवघेचि अप्रमाण ।।
अध्यात्म ज्ञानेविण । एकलेचि ।।”
[सन्त ज्ञानेश्वर अभंग गाथा : अभंग क्र. 645.]

आंतरिक-ज्ञान के द्वारा ही हम परमात्मा का अनुभव कर सकते हैं, उसका साक्षात्कार कर सकते हैं अथवा यों कहना चाहिए कि हम ईश्वर बनकर ही ईश्वर के दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें भी आंतरिक शक्तियों के विकास की ओर ही संकेत है। सन्त निरंकारी मिशन में ब्रह्मदर्शी सद्गुरू द्वारा बताये गये तीन कर्म सत्संग, सेवा और सुमिरण से तो हम ब्रह्मानंद की प्राप्ती करते है। संतोक्ति इस की ओर प्रेरित करती है। सन्त चोखा मेळा जीने कहा है –

“विठ्ठल विठ्ठल गजरी, अवघी दुमदुमली पंढरी ।
हरि कीर्तनाची दाटी, तेथे चोखा घाली मिठी ।।”

कल्पना, चिंतन, विचार, भावना, स्वप्न आदि के माध्यम से तो उसकी एक झलक ही देख सकते हैं। विश्वास की पुष्टि के लिए यद्यपि बुद्धि तत्त्व भी आवश्यक है तथापि उसके पूर्ण ज्ञान के लिए अपने अंदर प्रविष्ट होना होगा, आत्मा की सूक्ष्म सत्ता में प्रवेश करना आवश्यक हो जाता है। वहाँ बुद्धि की पहुँच नहीं हो सकती। ब्रह्मज्ञानी महात्मा अंतर्यामी होता है। आत्मा का भेदन आत्मा ही करता है और आत्मा बनकर ही आत्म साक्षात्कार किया जा सकता है। सन्तों के वचन प्रमाण हैं। सन्त रामदासजी कहते है –

“पहावे आपणासी आपण ।
तया बोलिजे आत्मज्ञान ।।”

इसी बात को ईश्वरीय ज्ञान के बारे में घटित किया जाता है। यह ऐसा ही है, जैसे कोई यह कहे कि पानी की एक बूँद समुद्र में मिलकर अपने आपको समुद्र अनुभव कर सकती है, पर अपने बूँद रूप में समुद्र की गहराई का मापन नहीं कर सकती।
!! महात्मा जी, प्यारसे कहना जी, धन निरंकार जी !!

✒️’बापु’ – श्रीकृष्णदास निरंकारी.
(मराठी साहित्यिक तथा सन्त-लोक साहित्य अभ्यासक)
मु. रामनगर वॉर्ड नं.20, गढ़चिरोली,
जीला – गढ़चिरोली (महाराष्ट्र).
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