बर्बरता की गला काट होड़

32

राजस्थान के उदयपुर में एक दर्जी कन्हैयालाल की दो उन्मादियों द्वारा अत्यंत बर्बरता के साथ की गयी हत्या ने पूरे देश को स्तब्ध और विचलित कर दिया है। दोनों हत्यारे कपड़े का नाप देने के बहाने कन्हैयालाल टेलर की दूकान में घुसे, उसका गला काट दिया और खुद ही इस जघन्यता का वीडियो बनाकर खुद ही उसे इंटरनेट और सोशल मीडिया साइट्स पर वायरल भी कर दिया। दोनों हत्यारे रियाज़ और मोहम्मद युवा हैं, पुलिस ने इन्हे राजसमंद जिले के भीम कस्बे से गिरफ्तार कर लिया है। हत्यारों ने दावा किया है कि उन्होंने यह निर्ममता कथित रूप से कन्हैयालाल द्वारा भाजपा की पूर्व प्रवक्ता नूपुर शर्मा के समर्थन में किये गए ट्वीट का “बदला लेने” के नाम पर की है। ज्यादातर राजनीतिक दलों सहित सभी समुदायों के हर फिक्रमंद भारतीय ने इसकी निंदा और भर्त्सना की है – लेकिन यह एक ऐसा हादसा है, ऐसा काण्ड है, जिसकी सिर्फ निन्दा या भर्त्सना करने से इसमें अन्तर्निहित खतरे नहीं समझे जा सकते, इनसे बचने की राह नहीं बनाई जा सकती।

उन्मादी हत्यारों की यह उदयपुर करतूत पागलपन की उस ज्वाला की एक और बानगी है, जिसके पैट्रोल में हाल के कुछ वर्षों में भारत को भिगोया और डुबोया जा रहा है। धर्म के नाम पर भड़काया जा रहा यह पागलपन सामाजिक संबन्धों, मनुष्यता, सभ्य समाज के मूल्यों और सामान्य मानवीय व्यवहार सब कुछ निगलता जा रहा है। निस्संदेह इसकी निंदा, भर्त्सना और दोषियों को कानून सम्मत सबसे बड़ी सजा दिए जाने की जरूरत है। जरूरत इस बात की भी है कि इस तरह की वारदातों के बहाने प्रतिस्पर्धी उन्माद भड़काने की हर कोशिश के खिलाफ सजग रहा जाए, उसे कड़ाई से रोका जाए। मगर इसी के साथ जरूरत इस बात की भी है कि इस तरह के उन्मादी पागलपन के कारणों की तलाश की जाए। इस सांघातिक बीमारी के विषाणुओं की शिनाख्त की जाए और उन्हें संक्रामक होने से रोका जाए।

इस हत्याकाण्ड के बाद से कुछ “समझदार आवाजें” उठ रही हैं कि इस घटना को सिर्फ इस घटना के रूप में देखा जाये। इस ‘अब’ को किसी और ‘तब और जब’ के साथ नहीं जोड़ा जाए। इस तरह के आग्रहों के पीछे छुपी भावना की अनदेखी भी कर दें, तब भी उदयपुर को सिर्फ उदयपुर तक सीमित रखकर समझने की कोशिश कही नहीं पहुंचायेगी। पाशविकता के उभार को उसके पूरे विकास – इवोल्यूशन – के साथ ही समझना होगा। इसे रियाज और मोहम्मद या कन्हैयालाल या नूपुर शर्मा के बयानों तक सीमित रखकर भी नहीं समझा जा सकता। इसकी एक क्रोनोलॉजी है, इसकी उत्तरोत्तर विषाक्त होती जा रही संक्रामकता है, यह देश और समाज को जिस दिशा में ले जा रही है, उस फिसलन की अंतिम मंजिल की डरावनी भयानकता है। धर्म का उन्मादीकरण इस विषाणु का जन्मदाता है, तात्कालिक राजनीतिक बढ़त हासिल करने के लिए धर्म और राजनीति का अप्राकृतिक गठबंधन इस घातक विषाणु की जीवनीशक्ति है और संविधान में लिखे मूल्यों को भूल चुके, उन्हें एकदम उलटने के लिए आमादा देश के नेता बने बैठे लोग इसके संवाहक हैं। देश और समाज को मध्ययुग में ले जाने की अपनी दिवालिया वैचारिकता और अपनी विनाशकारी आर्थिक नीतियों से उपजे जनाक्रोश को भटकाने के लिए शासक वर्ग इन विषाणुओं का भरपूर उत्पादन करता है। इन्हें मिटाने, थामने, रोकने या बाँधने की बजाय इसका प्रचार-प्रसार करता है।

कन्हैयालाल टेलर इसी धर्मांधता से उपजी पाशविकता के शिकार हैं – मगर वे पहले शिकार नहीं है। इस तरह की यह पहली हत्या नहीं है। पिछले कुछ वर्षों से, आमतौर से पिछले तीन दशकों और खासतौर से 2014 के बाद से इस तरह की उन्मादी हत्याओं की झड़ी-सी लगी हुयी है। बहाना कुछ भी हो सकता है। दो गाय खरीद कर हरियाणा ले जा रहे अकरम खान को अलवर में गाय के नाम पर, पुलिस अधिकारी अय्यूब पण्डित को कश्मीर में फोटो खींचने के नाम पर, पुलिस अधिकारी सुबोध सिंह को बुलंदशहर अपनी ड्यूटी करने के जुर्म में, अख़लाक़ को दादरी में उसकी रसोई में पक रही तरकारी के नाम पर और जुनैद को हरियाणा में बिना किसी बात के सिर्फ जुनैद होने के कारण ही मारा जा सकता है। देश भर में गुवाहाटी, दुर्गापुर, पालघर तक, लगभग इसी तरह मारे जाने वालों की यह सूची बहुत ज्यादा लम्बी है। इन पंक्तियों में इसको समेट पाना और इस हिंसक हत्यारी प्रवृत्ति के सभी कारणों और आयामों के बारे में चर्चा करना संभव नहीं है। मगर इस पर चर्चा की जरूरत है – जो समाज इस तरह की बहसों से जी चुराता है, उसके हिस्से अंधेरा ही आता है।

जहां कल रियाज़ और मोहम्मद गिरफ्तार किये गए हैं, उसी राजसमंद में 2017 में ऐसा ही एक हृदयविदारक जघन्य काण्ड हुआ था। किसी शम्भूदयाल रैगर नाम के व्यक्ति ने बिना किसी दुश्मनी, बिना किसी जान पहचान और बिना किसी कारण के बंगाल से मजदूरी करने आये अफ़राजुल को गैंती से मार डाला था। शम्भू ने इसका वीडियो भी बनाया था और खुद ही उसे वायरल भी किया था। इस प्रकरण के सामाजिक विश्लेषण के बाद जो तथ्य आये थे, उनमे शंभू की बेरोजगारी से उपजी मनोदशा के अलावा एक प्रमुख कारण सोशल मीडिया पर चल रहे विषाक्त प्रचार से उसका प्रभावित होना था। झूठी और अक्सर रची गयी कहानियों को देखते-देखते वह इतना उन्मादी हो गया था कि उसकी सारी मानवीय संवेदनाएं ही समाप्त हो चुकी थी। ठीक है, शंभू दयाल रैगर तो विक्षिप्त था, मगर वे कौन थे, जो उसे नायक बना रहे थे, उसके सम्मान में रामनवमी पर उसकी झांकी निकाल रहे थे, उसके लिए लाखों रुपया इकट्ठा कर रहे थे, उसे लोकसभा चुनाव लड़वा रहे थे??

इन कारनामों से बने माहौल को समझे बिना बर्बरताओं के उभार को नहीं समझा जा सकता। गोडसे की पूजा इसी मनोवृत्ति को उकसाने का एक जरिया है, इसलिए गांधी हत्या के बाद सरदार पटेल ने 18 जुलाई, 1948 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी को जो चिट्ठी भेजी थी, वह प्रासंगिक हो जाती है। इसमें उन्होंने लिखा था कि “गांधी जी की हत्या का केस अभी कोर्ट में है, इसीलिए आरएसएस और हिंदू महासभा, इन दोनों संगठनों के शामिल होने पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन हमारी रिपोर्ट से इस बात की पुष्टि होती है कि जो हुआ, वो इन दोनों संगठनों की गतिविधियों का नतीजा है। खासतौर पर आरएसएस के किए का, जिससे देश में इस तरह का माहौल बनाया गया कि इस तरह की (गांधी की हत्या) भयानक घटना मुमकिन हो पाई। मेरे दिमाग में इस बात को लेकर कोई शक नहीं कि हिंदू महासभा का कट्टर धड़ा गांधी की हत्या की साजिश में शामिल था और आरएसएस की गतिविधियों के कारण भारत सरकार और इस देश के अस्तित्व पर सीधा-सीधा खतरा पैदा हुआ।”

रियाज हो या मोहम्मद, शम्भू दयाल हो या बुलंदशहर से दादरी होते हुए अलवर तक के हत्यारे – वे दोषी हैं ; मगर उतने ही, बल्कि उनसे ज्यादा बड़े अपराधी वे हैं, जो इन मानव बमों को तैयार करते हैं। वे इधर हों या उधर — उन्हें अलग-थलग किये बिना भारत को नहीं बचाया जा सकता। इसलिए उदयपुर पर स्तब्ध और विचलित होना काफी नहीं है — रियाज और मोहम्मद को सजा देने भर से यह प्रकोप नहीं थमेगा। इसे महामारी बनने से रोकना है, तो विषाणुओं और उनके पालनहारों, उनके डिस्ट्रीब्यूटर्स, सबकी शिनाख्त करनी होगी और बिना किसी रू-रियायत के उनकी सफाई करनी होगी।

✒️आलेख:-बादल सरोज(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव और ‘लोकजतन’ के संपादक हैं। संपर्क : 094250-06716)