धर्मनिरपेक्ष भारत को ढहाता बहुसंख्यकवाद का बुलडोजर

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हजरत मोहम्मद के अपमान के लिए भाजपा की अखिल भारतीय प्रवक्ता, नूपुर शर्मा के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर, मुख्यत: मुस्लिम धर्म का पालन करने वालों की विरोध कार्रवाइयों के सामने, उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जितनी फुर्ती से अपने बुलडोलर कानून को आगे कर दिया है, वह काफी अर्थपूर्ण है। ऐसा लगता है कि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया के सामने दो-एक दिन की कुछ दुविधा के बाद, मोदी राज ने देश में कम से कम व्यावहारिक स्तर पर, बहुसंख्यकवादी राज कायम करने की ओर बड़ी छलांग लगा दी है। मुसलमानों की आवाज दबाने के लिए बुलडोजर का खुलेआम और तमाम कायदे-कानूनों को धता बताते हुए इस्तेमाल, इसी बहुसंख्यकवादी राज का एलान है। हां! चूंकि बहुसंख्यकवादी राज को, धर्मनिरपेक्षता का तकाजा करने वाले संविधान को औपचारिक रूप से खत्म किए बिना ही कायम किया जा रहा है, इसलिए इस बुलडोजर राज के लिए झूठा-सच्चा कुछ बहाना भी चाहिए। और यह बहाना बनाया गया है, भाजपा प्रवक्ताओं के धार्मिक उकसावे वाले बयान के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर, देश में मुसलमानों के विरोध प्रदर्शनों को और इन प्रदर्शनों में यहां-वहां छुट-पुट तौर पर हुई हिंसा को।

अचरज की बात नहीं है कि उत्तर प्रदेश के योगी राज ने इसे एक बार फिर मुसलमानों को सबक सिखाने का और इसकी याद दिलाने का मौका बना लिया है कि कम से कम यूपी में अब खुल्लमखुल्ला बहुसंख्यकवादी राज चलेगा। सीएए-विरोधी आंदोलन के खिलाफ अनुपातहीन शासकीय हिंसा तथा दमन और उससे जुड़ीं आरोपियों की संपत्तियों की जब्ती, कुर्की, उनसे जुर्माना वसूली, उनके नाम के इश्तहार चौराहों पर लगाने जैसी सरासर गैर-कानूनी कार्रवाइयों के जरिए, जिन्हें अंतत: उच्चतर न्यायालयों को गैरकानूनी घोषित कर रुकवाना भी पड़ा था, अब से करीब ढाई साल पहले ही योगी ने बहुसंख्यकवादी राज की स्थापना का एलान कर दिया था। अब उनकी दूसरी पारी में इस एलान को दुहराया जा रहा है। और बुलडोजर इस एलान का नगाड़ा है।

यह संयोग ही नहीं है कि बहुसंख्यकवादी राज के एलान के मौजूदा चक्र में इलाहाबाद में, जिसका नाम अब बदलकर प्रयाग राज कर दिया गया है, जावेद मोहम्मद के पक्के घर को, सैकड़ों कैमरों तथा हजारों पुलिसवालों की मौजूदगी मेें, पहले से एलान कर के बुलडोजर से पूरी तरह से जमींदोज कर दिए जाने का विशेष महत्व है। महज प्रशासनिक आदेश से एक कई मंजिला, सुंदर, पक्के मकान के गिराए जाने को, देश भर में जिस तरह लाइव दिखाया गया है और उस पर न सिर्फ अनजाने लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर, बल्कि भाजपा के उत्तर प्रदेश राज्य अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह समेत, भाजपा व उसके बड़े नेताओं से लगाकर, संघ-भाजपा की ट्रोल पैदल सेना तथा गोदी मीडिया तक द्वारा जिस तरह से जश्न मनाया गया है, उसने किसी न किसी तरह से बाबरी मस्जिद के बर्बर ध्वंस की याद दिला दी।

1992 और 2022 के बीच गुजरे तीस सालों में, धर्मनिरपेक्ष भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाने वाली ताकतों ने बेशक महत्वपूर्ण प्रगति की है : भगवा पार्टी की सरकार तब भी थी, उसकी सरकार अब भी है। फिर भी, तब चार सौ साल पुरानी मस्जिद को ढहाने के लिए, संघ-भाजपा को लाखों लोगों की भीड़ जुटानी पड़ी थी, अब वही काम कानूनन बनी सरकार के एक आदेश से हो गया। और यह भी कि पिछली बार, तब के मुख्यमंत्री, दिवंगत कल्याण सिंह को सांकेतिक ही सही, एक दिन की सजा सुप्रीम कोर्ट ने दी थी, बाबरी मस्जिद की हिफाजत करने का अदालत के सामने वादा करके भी, उसे पूरा करने के लिए कुछ भी नहीं करने के लिए। अब के मुख्यमंत्री, विरोध की आवाज उठाने वाले मुसलमानों या उनकी भाषा में ‘‘असामाजिक तत्वों’’ को हमेशा याद रहने वाला सबक सिखाने के लिए, अपने अधिकारियों तथा पुलिस बलों की पीठ ठोक रहे हैं। पर उसी शहर में स्थित हाई कोर्ट की, जिसका इलाहाबाद हाई कोर्ट का पुराना नाम अब भी बचा हुआ है, कम से कम ये पंक्तियां लिखे जाने तक नींद तक नहीं टूटी थी, जबकि वकीलों के एक समूह द्वारा बाकायदा हाई कोर्ट के मुखिया को सामूहिक चिट्ठी लिखकर उसे जगाने की काफी कोशिश की गयी थी।

यह तब है, जबकि इसी हाई कोर्ट के एक पूर्व-प्रधान न्यायाधीश ने सार्वजनिक रूप से बयान देकर कहा है कि इस तरह बुलडोजर से किसी का घर ढहाया जाना, पूरी तरह से गैर-कानूनी है। याद रहे कि यह इस सचाई से पूरी तरह से भिन्न है कि वह घर जावेद मोहम्मद या जावेद पम्प का तो है ही नहीं, जिसे पुलिस व प्रशासन ने रातों-रात, प्रयागराज में शुक्रवार 10 जून को हुए मुसलमानों के उग्र विरोध प्रदर्शन में हिंसा के षडयंत्र का सरगना करार देकर, उसके जैसों को सबक सिखाने के लिए पूरी तरह से ढहा दिया गया। जावेद बेशक इस घर में रहते हैं, लेकिन यह घर जावेद की पत्नी के नाम है, जो उनके पिता ने उन्हें भेंट में दिया था और इसलिए, उनके जीते-जी उस घर पर जावेद का किसी भी तरह कानूनी अधिकार नहीं है। इस सिलसिले में यहां कम से कम इसकी याद दिलाना तो बनता ही है कि पिछले ही महीने, जब भगवा पार्टी के बुलडोजर राज के ही अंतर्गत आने वाले मध्य प्रदेश में विदिशा जिले के अंतर्गत मनसा में, दिनेश कुशवाह नाम के एक भाजपा नेता ने, रतलाम के रहने वाले चतरलाल जैन को पीट-पीटकर सिर्फ इसलिए मार दिया था कि उसे 65 वर्षीय मानसिक रूप से कमजोर बुजुर्ग के मुसलमान होने का शक हो गया था। उसके खिलाफ शिवराज का बुलडोजर जब नहीं चला, तो खरगौन में हिंदू जुलूस के नाम पर भडक़ाए गए सांप्रदायिक झगड़े के बाद, मुसलमानों के प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत बनाए गए घर तक ढ़हाने में न हिचकने वाली भाजपा सरकार ने बुलडोजर के कुशवाह के घर पर नहीं चलने का यही कारण बताया था कि वह घर, आरोपी के नाम पर तो था ही नहीं। घर तो उसके पिता के नाम पर था! जाहिर है कि मोदी जी के नये इंडिया में अगर मामला मुसलमान का हो और मिशन न भूलने वाला सबक सिखाने का हो, तो बुलडोजर ऐसी बारीकियों में नहीं पड़ता है कि मकान का मालिक कौन है?

बेशक, यह संघ परिवार के दोमुंहेपन का ही एक और उदाहरण है कि टीवी पर लाइव पूरा घर ढहाए जाने और उसके जरिए मुसलमानों को सबक सिखाने की पूरे संघी ईको-सिस्टम में जम कर खुशियां मनाए जाने के बाद भी, योगी प्रशासन साफ-साफ शब्दों में एक बात नहीं बताता है कि जिस घर में जावेद का परिवार रहता है, उसे गिराने का कारण क्या था? बेशक, समूचा संघी ईको सिस्टम इसे प्रयागराज में 10 जून के प्रदर्शन के दौरान पुलिस पर हुए पथराव के लिए ‘‘सजा’’ के तौर पर प्रचारित करने तथा सेलिब्रेट करने में लगा रहा है। लेकिन, उसमें इतना नैतिक साहस कत्तई नहीं है कि बाकायदा इसका एलान कर सके कि यही इस बुलडोजर लीला का कारण है। लगातार यह प्रचार करते हुए और इसी के हिस्से के तौर पर ढहाए जाते घर से ‘‘अवैध हथियार मिलने’’ का टिपिकल पुलिसिया खेल रचते हुए भी, योगी प्रशासन दूसरे मुंह से बराबर इसके भी दावे करता रहा है कि नगर विकास प्राधिकार ने तो महज एक अवैध निर्माण के खिलाफ कर्रवाई की है! इसके लिए, उसने पिछली तारीख डालकर मई में एक कथित नोटिस जारी करने का स्वांग रचने से लेकर, तोड़े जाने से एक रात पहले पुलिस के घेरे में जावेद के घर पर घर तोड़े जाने की कार्रवाई का नोटिस चिपकाने तक, सारे धतकर्म किए गए हैं। जाहिर है कि बुलडोजर निजाम को भी इसका बखूबी अंदाजा है कि उसकी कार्रवाई कानूनी परीक्षण में कभी भी कानूनी नहीं ठहरायी जा सकती है। इसीलिए, उन्हें गैर-कानूनी निर्माण के खिलाफ कार्रवाई की ओट भी चाहिए। लेकिन, इसके साथ ही इसका हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राज की ‘‘सबकआमेज सजा’’ के रूप में प्रचार किया जाना भी जरूरी है, क्योंकि गैर-कानूनी निर्माण के खिलाफ कार्रवाई से बहुसंख्यकवादी राज की ताकत के प्रदर्शन में तो कोई मदद मिलती ही नहीं है।

पूछा जा सकता है कि प्रयागराज के जावेद ही क्यों? प्रयागराज के जावेद को ही इस ‘‘सजा’’ के लिए उदाहरण बनाए जाने के कारण एक नहीं, कई हैं। असली बात यह है कि जावेद, एक ओर परंपरागत मुस्लिम सामुदायिक नेता तथा दूसरी ओर, आधुनिक मुस्लिम बुद्घिजीवी से भी भिन्न, एक आधुनिक सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो मुस्लिम समुदाय से हैं — एक ऐसे कार्यकर्ता, जो अपने समुदाय की मांगों को उनके आधुनिक जनतांत्रिक अर्थ के आधार पर उठा सकते हैं और इस तरह हमारे बहुलतावादी समाज में धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की रक्षा के तकाजों के साथ, अल्पसंख्यकों के बुनियादी हितों को जोडक़र देखते-दिखाते हैं। अल्पसंख्यकों के अधिकारों का यह जनतंत्रवादी आर्टिकुलेशन, आजादी की लड़ाई के बाद, वामपंथ के गढ़ों के बाहर, देश के पैमाने पर सीएए-विरोधी आंदोलन में ही देखने को मिला था। जावेद, सीएए-विरोधी आंदोलन में आगे-आगे रहे थे। और उनकी इस विशिष्ट हैसियत का इससे भी काफी कुछ संबंध है कि उनकी बेटी आफरीन फातिमा, जनतांत्रिक छात्र आंदोलन में अपनी सक्रियता के जरिए, इस आर्टिकुलेशन में एक और जनतांत्रिक पहलू जुडऩे का उदाहरण पेश करती हैं। और ठीक यही चीज है, जिसे संघ-भाजपा की जोड़ी शुरूआत में ही कुचल देना चाहते हैं, क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक देश के नागरिकों के रूप में अल्पसंख्यकों का अपनी आवाज उठाना, एक ऐसी चीज है जिससे लडऩे में उन्हेें काफी मुश्किल होती है। उन्हें तो परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व के नाम पर मुल्ला-मौलवियों से ही लड़कर बहुसंख्यकों के बीच बहुसंख्यकवाद या बहुसंख्यक श्रेष्ठता का झंडा फहराने का प्रशिक्षण मिला है। सीएएविरोधी आंदोलन को उत्तर प्रदेश समेत, कई भाजपा-शासित राज्यों में बर्बर हिंसा के जरिए कुचले जाने और दिल्ली में अंतत: सांप्रदायिक हिंसा में डुबोने की कोशिश किए जाने के बावजूद, यह जनतांत्रिक अल्पसंख्यक आवाज बढ़ ही रही है। इसी रुझान की एक अभिव्यक्ति उत्तर प्रदेश के हाल के विधानसभाई चुनाव में भी हुई थी, जिसमें मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने समाजवादी पार्टी के नेतृत्ववाले गठबंधन को, उसकी तमाम कमजोरियों के बावजूद, अपना पूरा समर्थन दिया था। संघ-भाजपा ठीक इसी से डरते हैं। अन्य वंचितों के साथ अगर अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी, मजबूती के साथ जनतंत्र के साथ खड़े हो जाते हैं, तो धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारत की जगह, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राज को बैठाने का उनका सपना कभी पूरा नहीं हो सकता है।

✒️आलेख:-राजेंद्र शर्मा(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक है। संपर्क:-98180-97260)