मरते हैं इंसान भी और अब मर रही इंसानियत

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🔹देख ख़ुशी दूसरों की आज का इंसान क्यों जल रहा

🔸इंसान इंसान को डस रहा और साँप बैठकर रो रहा

✒️संजय वर्मा-गोरखपूर,चौरा चौरी(प्रतिनिधी)मो:-9235885830

गोरखपूर(दि.5ऑक्टोबर):-उक्त बातें मुंडेरा बाजार के कांग्रेस नगर अध्यक्ष संजू वर्मा ने अपने आवास सृष्टि रोड वार्ड नंबर 6 पर कही इंसानियत यानी मानवता, फिर चाहे वो किसी भी देश का हो, किसी भी जाति का हो या फिर किसी भी शहर का हो सबका एकमात्र प्रथम उद्देश्य एक अच्छा इंसान बनने का होना चाहिए।

हर किसी इंसान के रंग रूप, सूरत, शारीरिक बनावट, रहन-सहन, सोच-विचार और भाषा आदि में समानतायें भी होती हैं और असमानताएं भी होती हैं, लेकिन ईश्वर ने हम सभी को पाँच तत्वों से बनाया है। हम सभी में परमात्मा का अंश है।
आज के इस दौर में इंसान मानवता को छोड़कर, इंसान के द्वारा बनाये गए धर्मों के भेद-भाव के रास्ते पर निकल पड़ा है!
इसमें कुछ तो हम लोगों की अपनी सोच है और कुछ राजनेताओं द्वारा रचे प्रपंच है, जोकि राजनीतिक लाभ में भेद-भाव को बढ़ावा देता है!

जिसके चलते एक इंसान किसी दूसरे इंसान की ना तो मज़बूरी समझता है और ना ही उसकी मदद ही करता है।
यहाँ पर इंसानियत पर धर्म की चोट पड़ती है,लोग इंसानियत को छोड़कर अपने ही द्वारा रची गई धर्मों की बेड़ियों में जकड़े जा रहे हैं!

इंसान धर्म की आड़ में अपने अंदर पल रहे वैर, निंदा, नफरत, अविश्वास, उन्माद और जातिवादी भेदभाव के कारण अभिमान को प्राथमिकता दे रहा है!
जिससे उसके भीतर की मानवता धीरे धीरे दम तोड़ रही है!
इंसान प्यार करना भूलता जा रहा है, अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है और तो और अपने परमपिता परमात्मा को भी भूल सा गया है!इन सबके चलते मानव के मन में दानवता का वास होता जा रहा है।

आज धर्म के नाम पर लोग लहू-लुहान करने से पीछे नहीं हटते जिससे संप्रदायों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं! आज इंसान- इंसान का दुश्मन बनता जा रहा है!
क्योंकि वो पराये धर्म से है!लोगों का मूल उद्देश्य अपना स्वार्थ सिद्ध करना हो गया है किसी को पैसे का स्वार्थ है तो कोई ओहदे को लेकर और तो कोई एक तरफ़ा प्यार के स्वार्थ में अँधा है।

इसी के चलते मानव इंसानियत को अपने जीवन से चलता कर देते हैं। किसी शायर ने क्या खूब कहा है- ”इंसान इंसान को डस रहा है और साँप बैठकर रो रहा है”अब इंसान में हैवानियत-सी आ गई है, उसे अपने अलावा किसी की भी कोई अहमियत नजर नहीं आ रही है।

यह इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि जो इंसान जानवरों और पेड़ पौधों पर भी दया नहीं दिखा सकता वह इंसान पर कैसे दया कर सकता है ? यही वो इंसान है जो अब सिर्फ ‘मैं’ शब्द में ही उलझकर रह गया है और इसी में जीना चाहता है।